Study Material NCERT Class-12 History Chapter 5 : यात्रियों के नजरिए समाज के बारे में उनकी समझ THROUGH THE EYES OF TRAVELLERS PERCEPTIONS OF SOCIETY

 Study Material  यात्रियों के नजरिए समाज के बारे में उनकी : Delhi, NCERT Class-12 इतिहास अध्याय – 5 (लगभग दसवीं से सत्रहवीं सदी तक) (C. TENTH TO SEVENTEENTH CENTURY)

यात्रियों के नजरिए समाज के बारे में उनकी समझ का संक्षिप्त सारांश (Travelers’ Perspectives Brief Summary of Their Understanding of Society)

– अल-बरु का जन्म आधुनिक उस्बेकिस्तान में स्थित ख़्वारिज़्म में 973 ई० में हुआ था।

-ख़्वारिज़्म शिक्षा का एक प्रमुख केंद था। अल-बिरूनी ने उस समय वहाँ उपलब्ध सबसे अच्छी शिक्षा प्राप्त की थी। वह कई भाषाएँ जनता था। जिसमें सोरियाई, फारसी, हिब्रू तथा संस्कृत शामिल थीं।

– 1017 ई. में ख़्वारिज़्म पर महसूद ने आक्रमण किया और वहाँ के कई विद्वानों तथा कवियों को अपने साथ अपनी राजधानी से गज़नी ले गया। अल बिरूनी भी उनमें से एक था।

– अल-बिरूनी के लेखन कार्य के समय तक यात्रा वृत्तांत अरबी साहित्य का एक मान्य भाग बन चुके थे। ये वृत्तांत पश्चिम में सहारा मस्स्थल से लेकर उत्तर में वोल्गा नदी तक फैले क्षेत्रों से संबंधित थे।

– किताब-उल-हिंद अरबी में लिखी गई अल-बिरूनी की कृति है। इसकी भाषा सरल और स्पष्ट है। यह एक विस्तृत ग्रंथ है जो धर्म एवं दर्शन त्योहारों, खगोल विज्ञान, रीति-रिवाजों एवं प्रथाओं, सामाजिक-जीवन, भार-तौल एवं मापन विधियों, मूर्तिकला, कानून, मारतंत्र विज्ञान आदि विषयों के आधार पर अस्सी अध्यायों में विभाजित है।

– आज के कुछ विद्वानों का तर्क है कि अल-बिरूनी का गणित की ओर झुकाव था। इसी कारण ही उसकी पुस्तक, जो लगभग एक ज्यामितीय संरचना है, बहुत ही स्पष्ट बन पड़ी है।

– अल-बिरूनी ने लेखन में भी अरबी भाषा का प्रयोग किया था। उसने अपनी कृतियाँ संभवतः उपमहाद्वीप के सीमांत क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए लिखी थीं। उसे संस्कृत, पाली तथा प्राकृत ग्रंथों के अरबी भाषा में अनुवादों तथा रूपांतरणों को जानकारी थी।

– इब्न बतूता द्वारा अरबी भाषा में लिखा गया उसका यात्रा वृत्तांत रिहला के नाम से विख्यात है। यह 14वीं शताब्दी में भारतीय उपमहाद्वीप के सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन की बहुत ही व्यापक तथा रोचक जानकारियाँ है।

– इब्न बतूता पुस्तकों के स्थान पर यात्राओं से प्राप्त अनुभव को ज्ञान का  अधिक महत्वपूर्ण स्त्रोत मानता था। इसलिए उसे यात्राएँ करने का बहुत शौक था। वह नए-नए देशों और लोगों के विषय में जानने के लिए दूर-दूर के क्षेत्रों तक गया।

– इब्न बतूता 1933 में मध्य एशिया होते हुए स्थल मार्ग में सिंध पहुँचा। उसने दिल्ली के सुलतान मुहम्मद बिन-तुग़लक के बारे मैं कि सुना हुथा था कि वह कला और साहित्य का संरक्षक है। उसकी ख्याति से आकर्षित हो इब्न बतूता ने मुलतान तथा उच्छ (उच्च) के रास्ते दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। सुलतान उसकी विद्वता से बहुत प्रभावित हुआ और उसे दिल्ली का काज़ी अथवा न्यायधीश नियुक्त कर दिया। वह इस पद पर कई वर्षों तक रहा।

– इब्न बतूता ने चीन में व्यापक रूप से यात्रा की। वह बीजिंग तक गया, परंतु वहाँ यह लंबे समय तक नहीं ठहरा। 1347 में उसने वापस अपने घर जाने का निश्चय किया। चीन के विषय में उसके वृत्तांत की तुलना मार्कोपोलो के वृतांत से की जाती है। मार्कोपोलो में 13वीं शताब्दी के अंत में वेनिस से चलकर चीन और भारत को भी यात्रा की थी।

– इब्न बतूता ने नवीन संस्कृतियों, लोगों, आस्थाओं, मान्यताओं आदि के विषय में अपने विचारों को बड़ी सावधानी से लिखा।

– इब्न बतूता ने 14वीं शताब्दी में अपनी यात्राएँ उस समय की थीं जब यात्रा करना अत्यधिक कठिन तथा जोखिम भरा कार्य था। इब्न-बतूता के अनुसार उसे मुलतान से दिल्ली की उस यात्रा में चालीस तथा सिंध से दिल्ली की यात्रा में लगभग 50 दिन का समय लगा था।

– यात्रा के दौरान इब्न-बतूता ने कई बार डाकुओं द्वारा किए गए आक्रमण झेले थे। मुलतान से दिल्ली की यात्रा के दौरान उसके करवाँ पर आक्रमण हुआ था और उसके कई साथी यात्रियों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। शेष यात्री भी बुरी तरह से घायल हो गए थे। इनमें इब्न-बतूता भी शामिल था।

– इब्न बतूता वास्तव में एक हठी यात्री था। उसने उत्तर-पश्चिमी अफ्रीका में अपने निवास-स्थान मोरक्को वापस जाने से पूर्व कई वर्ष उत्तरी अफ्रीका, पश्चिम एशिया, मध्य एशिया के कई भागों, भारतीय उप-महाद्वीप तथा

चीन की यात्रा की थी। उसकी वापसी पर मोरक्को के स्थानीय शासक ने उसकी कहानियों को दर्ज करने के निर्देश दिए।

– यूरोपीय लेखकों में एक प्रसिद्ध नाम दुआर्ते बरबोसा का है। उसने दक्षिण भारत में व्यापार और समाज के बारे में एक विस्तृत विवरण लिखा।

– 1600 ई० के बाद भारत में आने वाले डच, अंग्रेज तथा फ्रांसीसी यात्रियों की संख्या बढ़ने लगी। इन यात्रियों में फ्रांसीसी ज्यौं-बैप्टिस्ट तैवर्नियर एक था। उसने कम से कम छह बार भारत की यात्रा की। वह विशेष रूप से भारत की व्यापारिक स्थितियों से प्रभावित था।

– फ्रांस्वा बर्नियर एक फ्रांसीसी यात्री था। वह एक चिकित्सक, राजनीतिक, दार्शनिक तथा इतिहासकार था। वह मुग़ल साम्राज्य में काम की तलाश में आया था। वह 1656 से 1668 तक बारह वर्ष भारत में रहा और मुग़ल दरबार से नज़दीकी रूप से जुड़ा रहा।

– बर्नियर ने भारत के कई भागों की यात्रा की और उसके विषय में विवरण लिखे। वह सामान्यतः भारत में जो भी देखता था उसकी तुलना यूरोपीय स्थिति से करता था। उसने अपनी प्रमुख कृति फ्रांस के शासक लुई XIV को समर्पित की थी।

बर्नियर की रचनाएँ फ्रांस में 1670-71 में प्रकाशित हुई थी। अगले पाँच वर्षों के भीतर ही इनका अंग्रेजी, डच, जर्मन तथा इतालवी भाषाओं में अनुवाद हो गया। 1670 और 1725 के बीच उसका वृत्तांत फ्रांसीसी भाषा में आठ बार छपा और 1684 तक यह तीन बार अंग्रेजी में छपा।

– बर्नियर का वृत्तांत अरबी और फ़ारसी वृत्तांतों के पूरी तरह विपरीत था। अरबी तथा फारसी वृत्तांत 1800 से पहले छपते ही नहीं थे। ये हस्तलिपियों के रूप में ही प्रचलित थे।

– अल बिरूनी ने कई अवरोधों की चर्चा की है जो उसकी समझ में बाधक थे।

(i) पहला अवरोध भाषा थी। उसके अनुसार संस्कृत, अरबी तथा फारसी से इतनी भिन्न भी कि विचारों और सिद्धांत का एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करना कठिन था। इतना होने पर भी अल-बिहनी अपने वृत्तांत के लिए लगभग पूरी तरह से संस्कृत रचित कृतियों पर आश्रित रहा। उसने भारतीय समाज को समझ के लिए प्रायः वेदों, पुराणों, भगवद्गीता, पतंजलि की कृतियों तथा मनुस्मृति से अंश उद्धृत किए।

(ii) दूसरा अवरोध धार्मिक अवस्था और प्रथा में भिन्नता थी।

(iii) तीसरा अवरोध लोगों का अभिमान था।

– जाति-व्यवस्था के संबंध में ब्राह्मणवादी व्याख्या को मानने के बावजूद अल-बिरूनी ने अपवित्र की मान्यता को अस्वीकार कर दिया। उसने लिखा कि प्रत्येक वस्तु जो अपवित्र हो जाती है अपनी खोई पवित्रता को पुनः प्राप्त करने का प्रयास करती है और सफल हो जाती है। उसके अनुसार जाति-व्यवस्था में शामिल अपवित्र की अवधारणा प्रकृति के नियमों के विरुद्ध है।

– जाति-व्यवस्था के विषय में अल-बिरूनी का विवरण पूरी तरह से संस्कृत ग्रंथों के अध्ययन से प्रभावित था। इन ग्रंथों में ब्राह्मणवादी जाति-व्यवस्था को संचालित करने वाले नियमों का प्रतिपादन किया गया था। परंतु

वास्तविक जीवन में यह व्यवस्था इतनी कड़ी नहीं थी।

– 14वीं शताब्दी में जब इब्न बतूता दिल्ली आया था, उस समय तक पूरा उपमहाद्वीप एक वैश्विक संचार तंत्र

का भाग बन चुका था। यह संचार तंत्र पूर्व में चीन से लेकर पश्चिम में उत्तर-पश्चिमी अफ्रीका तथा यूरोप तक फैला हुआ था। इब्न बतूता ने स्वयं इन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर यात्राएँ कीं। इन यात्राओं में उसने पवित्र पूजास्थलों को देखा, विद्वानों तथा शासकों के साथ समय बिताया और कई बार काज़ी के पद पर रहा।

–  इब्न बतूता ने नारियल और पान का चित्रण बहुत ही रोचक ढंग से किया है। इन दोनों चीजों से उसके पाठक

पूरी तरह से अपरिचित थे।

– इब्न बतूता ने देखा कि उपमहाद्वीप के नगर घनी आबादी वाले तथा समृद्ध थे। परंतु कुछ नगर युद्धों तथा अभियानों के कारण नष्ट भी हो चुके थे। इब्न बतूता के वृत्तांत से ऐसा लगता है कि अधिकांश शहरों में भी भीड़-भाड़ वाली सड़कें तथा चमक-दमक वाले बाज़ार थे।

– अधिकांश बज़ारों में एका मसजिद एक मंदिर होता था। कुछ बज़ारों में नर्तकों, संगीतकारों तथा गायकों के सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए स्थान वद्यमान थे।

– इब्न बतूता के अनुसार भारतीय कृषि बहुत अधिक उत्पादक थी। इसका कारण मिट्टी का उपजाऊपन था। अतः किसानों के लिए वर्ष में दो फसलें उगाना आसान था।

– भारतीय माल की मध्य तथा दक्षिण-पूर्व एशिया में बहुत माँग थी। इससे शिल्पकारों तथा व्यापारियों को भारी लाभ होता था। भारत के सूती कपड़े, महीन मलमल, रेशम, ज़री तथा साटन की विशेष माँग थी। इब्न बतूता हमें बताता है कि महीन मखमल, की कई किस्में इतनी अधिक महँगी थीं कि उन्हें धनी लोग ही खरीद सकते थे।

– व्यापारियों की प्रोत्साहित करने के लिए राज्य विशेष पग उठाता था। लगभग सभी व्यापारिक मार्गों पर सरायें तथा विश्राम गृह बनाए गए थे।

– इब्न बतूता डाक प्रणाली की कार्यकुशलता देखकर चकित रह गया। इससे व्यापारियों के लिए न केवल लंबी दूरी तक सूचना भेजी जा सकती थी, बल्कि अल्प सूचना पर माल भी भेजा जा सकता था। डाक प्रणाली इतनी कुशल थी कि जहाँ सिंध से दिल्ली की यात्रा में पचास दिन लग जाते थे, वहीं सुलतान तक गुप्तचरों की खबर मात्र पाँच दिनों में पहुँच जाती थी।

– इब्न बतूता ने हर उस चीज़ का वर्णन करने का प्रयास किया जिसने उसे अनूठी लगी। परंतु उसने भारत में जो भी देखा, वह उसकी तुलना यूरोप और विशेष रूप से फ्रांस की स्थितियों से करना चाहता था।

– बर्नियर सदा भारत की तुलना में तत्कालीन यूरोप की श्रेष्ठता पर बल देता रहा। उसका भारत चित्रण प्रतिकूलता पर आधारित है। इसमें भारत को यूरोप के विपरीत दिखाया गया है।

– बर्नियर का ग्रन्थ ‘ट्रैवल्स इन द मुगल एंपायर’ अपने गहन प्रेक्षण तथा चिंतन के लिए उल्लेखनीय है। इसे आलोचनात्मक दृष्टि से लिखा गया है। उसके वृत्तांत में मुगलों के इतिहास को एक प्रकार के वैश्विक ढाँचे में ढालने का प्रयास किया गया है।

– बर्नियर ने मुग़ल साम्राज्य को जिस रूप में देखा उसकी निम्न विशेषताएँ थी-

(i) इसका राजा “भिखारियों तथा क्रूर लोगों” का राजा है।

(ii) इसके शहर ध्वस्त हो चुके हैं तथा “खराब हवा” से दूषित हैं। इन सबका एकमात्र कारण भूमि पर राज्य का स्वामित्व है।

– फ्रांसीसी दार्शनिक मॉन्टेस्क्यू ने बर्नियर के वृत्तांत का प्रयोग पूर्वी निरंकुशबाद के सिद्धांत को विकसित करने में किया। इसके अनुसार पूर्व एशिया में शासक अपनी प्रजा पर असीम प्रभुत्व का उपयोग करते थे। प्रजा को निरंतर दासता और गरीबी की स्थिति में रखा जाता था।

– 19वीं शताब्दी में कार्ल मार्क्स ने इस विचार को एशियाई उत्पादन शैली के सिद्धांत का रूप दे दिया। उसने यह तर्क दिया कि भारत तथा अन्य एशियाई देशों में उपनिवेशवाद से पहले अधिशेष का अधिग्रहण राज्य द्वारा होता था। इससे एक ऐसे समाज का उदय हुआ जो बड़ी संख्या में स्वायत्त तथा समतावादी ग्रामीण समुदायों से बना था।

– बर्नियर द्वारा ग्रामीण समाज का चित्रण सच्चाई से बहुत दूर था। वास्तव में 16वीं तथा 17वीं शताब्दी में ग्रामीण समाज में बड़े पैमाने पर सामाजिक और आर्थिक विभेद पाया जाता था। एक ओर बड़े ज़मींदार थे जो भूमि पर उच्चाधिकारों का उपयोग करते थे जबकि दूसरी ओर “अस्पृश्य” भूमिविहीन श्रमिक थे। इन दोनों के बीच में बड़े किसान थे जो किराए के श्रम का प्रयोग करते थे और उत्पादन में जुटे रहते थे। कुछ छोटे किसान भी थे जो इतना उत्पादन भी नहीं कर पाते थे कि उनका गुज़ारा हो सके।

– 17वीं शताब्दी में लगभग पंद्रह प्रतिशत जनसंख्या नगरों में रहती थी। यह अनुपात उस समय की पश्चिमी यूरोप की नगरीय जनसंख्या के अनुपात से अधिक था। फिर भी बर्नियर मुग़लकालीन शहरों को “शिविर नगर” कहता है जो अपने अस्तित्व के लिए राजकीय संरक्षण पर निर्भर थे।

– मुग़ल काल में सभी प्रकार के नगर पाए जाते थे-उत्पादन केंद्र, व्यापारिक नगर, बंदरगाह नगर, धार्मिक तीर्थस्थान आदि। समृद्ध व्यापारिक समुदाय तथा व्यावसायिक वर्ग इनके अस्तित्व के सूचक हैं।

– व्यापारी आपस में मज़बूत सामुदायिक अथवा बंधुत्व के संबंधों से जुड़े होते थे और अपनी जाति था व्यावसायिक संस्थाओं द्वारा संगठित रहते थे। पश्चिमी भारत में ऐसे समूहों को ‘महाजन’ कहा जाता था और

उनके मुखिया को सेठ। अहमदाबाद जैसे नगरों में सभी महाजनों का सामूहिक प्रतिनिधित्व व्यापारिक समुदाय

का मुखिया करता था जिसे नगर सेठ कहा जाता था।

– बाज़ारों में दास अन्य वस्तुओं की तरह खुलेआम बिकते थे और नियमित रूप से भेंट में भी दिए जाते थे। जब इब्न बतुता सिंध पहुँचा तो उसने भी सुलतान मुहम्मद-बिन-तुगलक को भेंट में देने के लिए घोड़े, ऊँट तथा दास खरीदे थे।

– इब्न बतूता के विवरण से प्रतीत होता है कि दासों में की विभिन्नता थी। सुलतान की सेवा में कार्यरत कुछ दासियाँ संगीत और गायन में निपुण थीं। सुलतान अपने अमीरों पर नज़र रखने के लिए भी दासियों को नियुक्त करता था। दासों को सामान्यतः घरेलू श्रम के लिए प्रयोग में लाया जाता था। वे विशेष रूप से पालकी या डोले में महिलाओं तथा पुरुषों को ले जाने का काम करते थे।

– सभी समकालीन यूरोपीय यात्रियों तथा लेखकों के लिए महिलाओं से किया जाने वाला व्यवहार पश्चिमी तथा पूर्वी समाजों के बीच भिन्नता का एक महत्त्वपूर्ण सूचक था। इसलिए बर्नियर ने सती-प्रथा जैसी अमानवीय प्रथा पर अपना ध्यान विशेष रूप से केंद्रित किया।

– महिलाओं का भ्रम कृषि तथा कृषि के अतिरिक्त होने वाले उत्पादन दोनों में महत्वपूर्ण था। व्यापारिक परिवारों की महिलाएँ व्यापारिक गतिविधियों में भाग लेती थीं। यहाँ तक कि वे कभी-कभी वाणिज्य संबंधी विवादों को अदालत में भी ले जाती थीं। अतः यह बात संभव नहीं लगती कि महिलाओं को उनके घरों की चारदीवारी तक ही सीमित रखा जाता था।

By Sunaina

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