Study Material NCERT Class-12 History Chapter 4 : विचारक विश्वास और इमारतें सांस्कृतिक विकास THINKERS, BELIEFS AND BUILDINGS CULTURAL DEVELOPMENTS

विचारक NCERT Class-12  Study Material : Delhi, इतिहास अध्याय – 4 (ईसा पूर्व 600 से ईसा संवत् 600 तक) History Chapter 4 (C. 600 BCE 600 CE)

NCERT Class-12 विचारक, विश्वास और इमारतें सांस्कृतिक विकास का संक्षिप्त सारांश (Thinkers, Beliefs and Buildings Brief Summary of Cultural Development)

– 600 ई०पू० से 600 ई० तक के काल के प्रमुख ऐतिहासिक स्रोत बौद्ध, जैन तथा ब्राह्मण ग्रंथ, इमारतें और अभिलेख आदि हैं।

– साँची, कनखेड़ा की इमारतें भोपाल राज्य के प्राचीन अवशेषों में सबसे अद्भुत हैं।

– फ्रांसीसी तथा अंग्रेज़ साँची के पूर्वी तोरणद्वार को अपने-अपने देश ले जाना चाहते थे। सौभाग्यवश वे इस प्रतिकृतियों से संतुष्ट हो गए जो प्लास्टर से बनाई गई थी। इस प्रकार यह कृति भोपाल राज्य में अपनी जगह पर ही रही।

– भोपाल के शासकों, शाहजहाँ बेगम और उनकी उत्तराधिकारी सुल्तानजहाँ बेगम ने साँची के स्तूप के रख-रखाव के लिए धन का अनुदान दिया। सुल्तानजहाँ बेगम ने वहाँ पर एक संग्रहालय और अतिथिशाला बनाने के लिए भी अनुदान दिया।

– साँची बौद्ध धर्म का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र है। इसकी खोज से आरंभिक बौद्ध धर्म के बारे में हमारी जानकारी में महत्त्वपूर्ण बदलाव आए। आज यह स्थान भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के सफल संरक्षण का जीता-जागता उदाहरण है।

– ईसा पूर्व, प्रथम सहस्राब्दी में ईरान में जरथुस्त्र जैसे चिंतक, चीन में खुंगत्सी, यूनान में सुकरात, प्लेटो तथा अरस्तु और भारत में महावीर बुद्ध जैसे कई चिंतकों का उदय हुआ। उन्होंने जीवन के रहस्यों को समझते है साथ-साथ मानव और विश्व व्यवस्था के बीच संबंध को समझने का प्रयास भी किया।

– ऋग्वेद, अग्नि, इंद्र, सोम आदि कई देवताओं के स्तुति-सूक्तों का संग्रह है। यज्ञों के समय इन सूक्तों का उच्चारण किया जाता था और लोग मवेशी, पुत्र, स्वास्थ्य, लंबी आयु आदि के लिए प्रार्थना करते थे।

– आरंभिक यज्ञ सामूहिक रूप से किए जाते थे परंतु बाद में (लगभग 1000 ईसा पूर्व 500 ईसा पूर्व) कुछ यज्ञ गृहस्वामियों द्वारा किए जाने लगे। कुछ जटिल यज्ञ केवल सरदार और राजा ही किया करते थे। इनमें राजसूय अश्वमेध आदि यज्ञ शामिल थे। इनके अनुष्ठान के लिए उन्हें ब्राह्मण, पुरोहितों पर निर्भर रहना पड़ता था।

– उपनिषदों में दी गई विचारधाराओं से पता चलता है कि लोग जीवन का अर्थ, मृत्यु के बाद जीवन की संभावना और पुनर्जन्म के बारे में जानने के लिए उत्सुक रहते थे।

– समकालीन बौद्ध ग्रंथों में 64 संप्रदायों अथवा चिंतन परंपराओं का उल्लेख मिलता है। इससे हमें जीवंत चर्चाओं और विवादों की एक झाँकी मिलती है। प्रचारक (दार्शनिक) स्थान-स्थान पर घूमकर अपने दर्शन या विश्व के विषय में अपने ज्ञान को लेकर एक-दूसरे से तथा सामान्य लोगों से तर्क-वितर्क करते थे।

– कई विचारकों ने, जिनमें महावीर और बुद्ध शामिल हैं, वेदों के प्रभुत्व पर प्रश्न उठाया। उन्होंने यह माना कि जीवन के दुःखों से मुक्ति का प्रयास हर व्यक्ति स्वयं कर सकता है।

– जैन धर्म के मूल सिद्धांत छठी शताब्दी ईसा पूर्व में वर्धमान महावीर के जन्म से पहले ही उत्तर भारत में प्रचलित थे। जैन परंपरा के अनुसार महावीर से पहले 23 शिक्षक हो चुके थे, जिन्हें तीर्थंकर कहा जाता है।

– जैन दर्शन की सबसे महत्त्वपूर्ण अवधारणा यह है कि सारा संसार सजीव है। यह माना जाता है कि पत्थर, चट्टान और जल में भी जीवन होता है। जीवों के प्रति अहिंसा विशेष कर मनुष्यों, जानवरों, पेड़-पौधों और कीड़े-मकोड़ों को न मारना जैन दर्शन का केंद्र बिंदु है।

– जैन धर्म भारत के कई भागों में फैला। बौद्धों की तरह जैन विद्वानों ने भी प्राकृत, संस्कृत, तमिल आदि भाषाओं में काफ़ी साहित्य का सृजन किया।

– बुद्ध अपने युग के सबसे प्रभावशाली शिक्षकों में से एक थे। सैकड़ों वर्षों के दौरान उनके संदेश पूरे उपमहाद्वीप में और उसके बाद मध्य एशिया होते हुए चीन, कोरिया और जापान तथा श्रीलंका से समुद्र पार कर म्यांमार, थाइलैंड और इंडोनेशिया तक फैल गए।

– बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था। वह शाक्य कबीले के सरदार के पुत्र थे।

– बुद्ध का मानना है कि समाज का निर्माण मनुष्यों ने किया था न कि ईश्वर ने। इसीलिए उन्होंने राजाओं और गृहपतियों को दयावान और आचारवान होने की सलाह दी। बुद्ध के अनुसार व्यक्ति प्रयास से सामाजिक परिवेश को बदला जा सकता है।

– धीरे-धीरे बुद्ध के शिष्यों की संख्या बहुत अधिक बढ़ गई। इसलिए उन्होंने संघ की स्थापना की। यह ऐसे भिक्षुओं की एक संस्था थी, जो धम्म के शिक्षक बन गए थे। ये भिक्षु एक सादा जीवन बिताते थे।

– आरंभ में केवल पुरुष ही संघ में सम्मिलित हो सकते थे। बाद में महिलाओं को भी अनुमति दे दी गई। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार बुद्ध के प्रिय शिष्य आनंद ने बुद्ध को समझाकर महिलाओं के संघ में प्रवेश की अनुमति प्राप्त की थी।

– बुद्ध के अनुयायी कई सामाजिक वर्गों से संबंध रखते थे। इनमें राजा, धनवान, गृहपति और साधारण लोग जैसे कर्मकार, दास, शिल्पी सभी शामिल थे। सभी का दर्जा समाज माना जाता था क्योंकि भिक्खु और भिक्खुनी बनने पर उन्हें अपनी पुरानी पहचान को त्याग देना पड़ता था।

–  बौद्ध साहित्य में कई चैत्यों का उल्लेख है। इसमें बुद्ध के जीवन से जुड़े स्थानों का भी वर्णन है जहाँ वे जन्मे थे (लुंबिनी), जहाँ उन्होंने ज्ञान प्राप्त किया (बोधगया), जहाँ उन्होंने प्रथम उपदेश दिया (सारनाथ) और जहाँ उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया (कुशीनगर)।

– ऐसे कई स्थान थे जिन्हें पवित्र माना जाता था। इन स्थानों पर बुद्ध से जुड़े कुछ अवशेष जैसे उनकी अस्थियाँ या उनके द्वारा प्रयुक्त सामान गाड़ दिए गए थे। इन टोलों को स्तूप कहते थे।

– स्तूप बनाने की परंपरा संभवतः बुद्ध के पहले से ही प्रचलित थी, परंतु यह बुद्ध धर्म से जुड़ गई। क्योंकि ऐसे स्थलों में अवशेष होते थे जिन्हें पवित्र समझा जाता था, इसलिए समूचे स्तूप को ही बुद्ध और बौद्ध धर्म के प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठा मिली।

– स्तूप (संस्कृत अर्थ टोला) का जन्म एक अर्ध-गोलाकार मिट्टी के टीले से हुआ जिसे बाद में अंड कहा गया। धीरे-धीरे इसकी संरचना अधिक जटिल होती गई। अब इसमें कई चौकोर तथा गोल आकारों में संतुलन बिठाया जाने लगा। अंड के ऊपर एक हर्मिका होती थी। छज्जे जैसा यह ढाँचा देवताओं के घर का प्रतीक था।

– साँची और भरहुत के प्रारंभिक स्तूप बिना अलंकरण के हैं। इनमें केवल पत्थर को वेदिकाएँ और तोरणद्वार ही बने हैं। पत्थर की ये वेदिकाएँ किसी बाँस या काठ के घेरे के समान थीं। परंतु चारों दिशाओं में खड़े तोरणद्वार पर खूब नक्काशी की गई थी। उपासक पूर्वी तोरणद्वार से प्रवेश करके टीले के दाईं ओर रहते हुए दक्षिणावर्त परिक्रमा करते थे।

– अमरावती के स्तूप को खोज अचानक हुई। 1796 में एक स्थानीय राजा मंदिर बनाना चाहते थे। अचानक उसे अमरावती के स्तूप के अवशेष मिल गए।

– 1854 में गुंटूर (आंध्र प्रदेश) के कमिश्नर ने अमरावती की यात्रा की। वह यहाँ की कई मूतियाँ और उत्कीर्ण पत्थर मद्रास से गया। उसने स्तूप के पश्चिमी तोरणद्वार को भी खोज निकाला। वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि अमरावती का स्तूप बोद्धों का सबसे विशाल और शानदार स्तूप था।

– पुरातत्त्ववेत्ता एम०एच० कोल उन लोगों में एक थे जो अलग सोच रखते थे। उन्होंने लिखा “इस देश की प्राचीन कलाकृतियों की लूट की इजाज़त देना मुझे आत्मघाती और असमर्थनीय नीति लगती है”।

– 1818 में साँची की खोज हुई। उस समय तक भी इसके तीन तोरणद्वार खड़े थे। चौथा द्वार वहीं पर गिरा हुआ था। टोला अभी भी अच्छी दशा में था।

– कई अधिकारी स्तूपों से मूर्तियों को यूरोप ले गए। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उन्हें ये खूबसूरत और मूल्यवान लगीं।

– कला इतिहासकारों को बौद्ध मूर्तिकला को समझने के लिए बुद्ध के चरित्र-लेखन का सहारा लेना पड़ा। चिंतन करते हुए ज्ञान प्राप्ति हुई। कई प्रारंभिक मूर्तिकारों ने बुद्ध को मानव रूप में न दिखाकर उनकी उपस्थिति प्रतीकों के माध्यम से दर्शाने का प्रयास किया।

– साँची की बहुत-सी मूर्तियों का संबंध शायद बौद्ध मत से नहीं था। इनमें कुछ सुंदर स्त्रियों की मूर्तियाँ शामिल हैं। इन स्त्रियों को तोरणद्वार के किनारे एक पेड़ पकड़कर झूलते हुए दिखाया गया है। आरंभ में विद्वान इस मूर्ति के महत्व के बारे में कुछ असमंजस में थे क्योंकि इस मूर्ति का त्याग और तपस्या से कोई रिश्ता नज़र यहीं आता था। परंतु साहित्यिक परंपराओं के अध्ययन से उन्हें यह आभास हुआ कि यह संस्कृत भाषा में वर्णित शालभंजिका की मूर्ति है।

– लोक परंपरा में यह माना जाता था कि शालभंजिका द्वारा हुए जाने से वृक्षों में फूल खिल उठते थे और फल आने लगते थे।

– कनिष्क के समय में बौद्ध धर्म में महायान परंपरा का उदय हुआ। महायान के अनुपायी दूसरी बौद्ध परंपराओं के समर्थकों को हीनयान के अनुयायों कहते थे। परंतु पुरातन परंपरा के अनुयायी स्वयं को थेरवादी कहते थे।

– आज जिसे हिंदू धर्म के नाम से जाना जाता है उसमें दो परंपराएँ शामिल थीं- वैष्णव तथा शैव। वैष्णव परंपरा में विष्णु को सबसे महत्त्वपूर्ण देवता माना जाता है, जबकि शैव संकल्पना में शिव परमेश्वर है। इन परंपराओं में एक विशेष देवता की पूजा को महत्त्व दिया जाता था।

– वैष्णववाद में कई अवतारों के इर्द-गिर्द पूजा पद्धतियाँ विकसित हुई। इस परंपरा में दस अवतारों की कल्पना की गई है। यह माना जाता है कि पापों के बढ़ने पर दुनिया में अव्यवस्था और विनाश की स्थिति आ जाती है। तब विश्व की रक्षा के लिए भगवान् अलग-अलग रूपों में अवतार लेते हैं।

– आरंभिक मंदिर एक चौकोर कमरे के रूप में होते थे। जिन्हें गर्भग्रह कहा जाता था। इनमें एक दरवाजा होता था जिसमें से होकर उपासक मूर्ति की पूजा करने के लिए अंदर जा सकता था। धीरे-धीरे गर्भग्रह के ऊपर एक ऊँचा- ढाँचा बनाया जाने लगा जिसे शिखर कहा जाता था।

– शुरू-शुरू के कुछ मंदिर पहाड़ियों को काटकर खोखला करके कृत्रिम गुफ़ाओं के रूप में बनाए गए थे। सबसे प्राचीन कृत्रिम गुफ़ाएँ ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में अशोक के आदेश से आजीविकों के लिए बनाई गईं थीं। इसका सबसे विकसित रूप हमें आठवीं शताब्दी के कैलाशनाथ के मंदिर में दिखाई देता है जिसमें पूरी पहाड़ी को काटकर उसे मंदिर का रूप दे दिया गया था।

– किसी मूर्ति का महत्त्व और संदर्भ समझने के लिए कला के इतिहासकार प्रायः लिखित ग्रंथों से जानकारी एकत्रित करते हैं। भारतीय मूर्तियों को समझने के लिए यूनानी मूर्तियों से उनकी तुलना करने की अपेक्षा यह निश्चय ही बेहतर तरीका था। विचारक विश्वास और इमारतें सांस्कृतिक विकास

By Sunaina

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